शुक्रिया गोपी लड़ना सिखाने के लिए

शुक्रिया गोपी लड़ना सिखाने के लिए

शुक्रिया गोपी लड़ना सिखाने के लिए रियो ओलंपिक में पीवी संधु ने जो कमाल किया है उसका श्रेय निश्चित तौर पर उनके कोच पुलेला गोपीचंद को जाता है, गोपीचंद ने पिछले एक दशक में एक से बढ़कर एक बैडमिंटन खिलाड़ी देश को दिए है ...ये खत उनके नाम ( प्रबुद्द जैन) रियो ओलंपिक में पीवी सिंधू ने जो कमाल किया है उसका श्रेय निश्चित तौर पर उनके कोच पुलेला गोपीचंद को जाता है. गोपीचंप्रिय गोपीचंद, तुमने कर दिखाया. जो इससे पहले कोई न कर सका. तुम्हारी शागिर्द ने हैदराबाद के कोर्ट में सबक सीखकर उसे रियो की ज़मीन पर आज़माया तो चांदी चमक उठी...चेहरे दमक उठे... गोपी, हम हिंदुस्तानी हैं. ओलंपिक में कामयाबी हमेशा चांद सरीखी ही रहती है जिसे उचक कर छूना तो मुमकिन नहीं. इसलिए जब कोई वो चांद तोड़कर घर ले आता है तो पागल हो जाते हैं. इस पागलपन में याद ही नहीं रहता कि जो सामने दिख रहा है, वो यूं ही नहीं हो गया. किसने की इस खिलाड़ी को यहां तक लाने की मेहनत. किसने सुबह चार बजे जागकर, भूख-प्यास भूलकर तराशा ये हीरा. क्या भारत की खेल संस्थाएं या इस केस में बैडमिंटन फ़ेडरेशन ने बनाया सिंधु को या श्रीकांत को या इससे पहले सायना को. नहीं, वो तुम हो गोपी. तुम, जो ख़ुद सिस्टम बनकर सिस्टम से लड़ गए. तुम्हारे पास लड़ने के हथियार नहीं थे लेकिन हौसला बहुत था, लगन बहुत थी, ज़रूरत बहुत थी क्योंकि वाक़ई लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता. वो 2001 का साल था. प्रकाश पादुकोण के 20 बरस बाद तुमने ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप पर कब्ज़ा जमाया था. मैं स्कूल में था उन दिनों. क्रिकेट और क्रिकेटरों को ख़ुदा बनाने वाले इस देश को तो याद भी नहीं होगा कि चैंपियनशिप जीतने के तुरंत बाद तुम्हें भी एक क्रिकेटर की तरह कोल्ड ड्रिंक के विज्ञापन का ऑफ़र मिला था. जिसे तुमने ये कहकर रिजेक्ट कर दिया कि बच्चे तो यही सोचेंगे कि ये कोई हेल्थ ड्रिंक है और इसे पीने से ताक़त मिलती है. जबकि तुम ख़ुद ऐसी ड्रिंक्स से 1997 से ही तौबा कर चुके थे. तब तुम सिर्फ़ एक खिलाड़ी कहां रहे थे. 'ये दिल मांगे मोर' को एंथेम बनाने वाले मुल्क में महज़ 28 साल की उम्र में इस फ़ैसले ने दिखा दिया कि तुम्हें इस देश के बच्चों से प्यार है, उनकी फ़िक़्र है. उनके आने वाले कल की चिंता है. अगर तुम उस विज्ञापन को कर लेते तो शायद तुम्हें अपना सपना पूरा करने के लिए घर गिरवी रखने की ज़रूरत नहीं पड़ती. उन दिनों तुम्हारे लिए जो सम्मान जागा वो आज तक बदस्तूर कायम है. बल्कि कहूं कई गुना बढ़ गया है. लेकिन फिर सोचता हूं कि सब आसानी से होता रहता तो वो आग कहां से आती, वो भूख कहां से आती, वो आक्रामकता कहां से आती. एक महान खिलाड़ी को सिर्फ़ इसलिए अपना घर गिरवी रखना पड़ जाए कि वो अपने जैसे कुछ और हीरे तराशने की जुर्रत करना चाहता है, ये सोचकर ही दिल बैठ जाता है. किस-किस से तो लड़े तुम और कैसे-कैसे. पांच एकड़ ज़मीन देकर तीन एकड़ वापस मांगने वाली राज्य सरकार से. 'आख़िर बैडमिंटन एकेडमी में स्वीमिंग पूल की क्या ज़रूरत है' कहने वाले नासमझ नौकरशाहों से, फ़ेडरेशन की लालफ़ीताशाही से, ख़ुद की इंजरी से, पैसे की लगातर कमी से. 'फाइटर' पुलेला गोपीचंद... जब इतना सब कुछ झेल रहे थो तो क्यों नहीं कहीं झोली फैला दी. शायद, इसीलिए न क्योंकि तुम इन सारे एहसासों और तजुर्बों को जज़्ब करके उन्हें अपने प्यारे बच्चों के खेल के ज़रिए विस्फोटित करना चाहते थे. सच है न? सच ही होगा वरना 10 साल की नन्ही सिंधू की उंगली पकड़कर तुम्हारी एकेडमी में छोड़ने वाले मां-बाप के दिलों में इतना भरोसा कैसे जागता. इस लड़की ने जब सेमीफ़ाइनल जीता तो मैंने कुछ पुराने वीडियो खंगाले. वो उनमें इतनी चीख़ती नहीं दिखती. अच्छा हुआ कि तुमने उसे चीख़ना सिखाया कि चीख़ने से भीतर चल रही उथल-पुथल, घबराहट बाहर निकल जाती है. अब सोचता हूं कि एकेडमी बनाने और चलाने के सिलसिले में सिस्टम से लड़ते वक़्त तुम अकेले में, तन्हा उस कोर्ट पर कितनी बार चीख़े होगे! ट्विटर कह रहा है कि तुम वाक़ई द्रोणाचार्य हो. मैं नहीं मानता. तुम कहां अपने शिष्यों में भेदभाव करते हो! तुम कहां सिर्फ़ किसी कारोबारी, किसी बड़ी शख़्सियत के बच्चों को कोचिंग देते हो! तुम्हारी एकेडमी के दरवाज़े तो सबके लिए खुले हैं. हां, ये अलग बात है कि अब तुम फ़ोन उठाने में डरते हो क्योंकि एकेडमी में जगह ही कहां बची है नए बच्चों के लिए. अब ये सिस्टम तुम पर जान लुटाने का अभिनय करेगा, तुम थोड़े सावधान रहना, गोपी. हम ऐसे ही है. मिनटों में आसमान पर ले जाते हैं और सेकेंडों में ज़मीन पर पटक देते हैं. सोचते कम है, बहलाए ज़्यादा जाते हैं. लेकिन तुम डरना मत. भीतर से हिंदुस्तान तुम्हारे साथ है. जब ज़रूरत पड़े, बस फ़ेसबुक या ट्विटर पर बता देना पैसा किस खाते में जमा कराना है...यक़ीन करो इस देश के आम आदमी से वो पैसा तुमको मिलेगा. बस तुम हारना मत. एक सिंधू, एक साइना नाकाफ़ी है. 125 करोड़ उम्मीदों का बोझ ढोने के लिए. तुम हमें और सिंधू देना, और सायना देना और श्रीकांत देना. और चलते, चलते....सिंधु का फ़ोन तीन महीने से तुम्हारे पास है, वो उसे लौटा देना....ज़रा वो भी तो जाने कि इस देश को उस पर कितना नाज़ है ! शुक्रिया गोपीलड़ते रहने के लिए प्रबुद्ध (लेखक शारदा यूनिवसिटी में प्रोफेसर और सुनो शारदा रोडियो के कॉर्डिनेटर है )